शुरुआत कुछ  इस तरह हुई - हमारे प्रॉजेक्ट अफ़सर श्री परसराम बाल्मिकी ने गांव तुरूर में एक सभा बिठाई। जब सभा में मौजूदा औरतों से उनकी दिनचर्या और रोज़मर्रा के कार्यों के बारे में पुछा गया तो उन्होंने अपना हाल कुछ यूँ बयां किया।

"हमारा ज़्यादातर समय जंगल में बीतता है। ख़ेती और घर के काम-काज से फ़ुरसत पाते ही हम जंगल की ओर निकल जाती हैं - जहां तेन्दु के पत्ते, महुआ के फूलों के अलावा चूल्हे के लिए लकड़ी एवं गाय-बकरियों का चारा इकठ्ठा करना होता है।"

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परसराम ये जानते थे की प्रतिदिन जंगल का रुख करने वाली ये औरतें निरंतर अपने जीवन को खतरे में डालती हैं। इसलिए उत्सुकतावश उन्होंने पूछ ही लिया - "क्या आप को जंगल जाते हुए डर नहीं लगता?"

इस प्रश्न का जवाब उन्हें एक स्वर में मिला। "डर तो बहुत लगता है, पर जीवन यापन के लिए जाना पड़ता है।" मानकी बाई ने बतलाया कैसे एक रोज़ जंगल से आते हुए उन्हें तेंदुआ दिखाई पड़ा था। उस दिन वो जैसे तैसे सलामत घर पहुंचीं थीं। सुहागा बाई ने भी कुछ ऐसा ही हादसा बयां किया - एक दिन जब जंगल जाते वक़्त उनकी नज़र एक काले जंगली भालू पर पड़ी तो वो उलटे पाओं घर वापिस लौट आयीं।

कौतहुलवश परसराम ने फिर पूछ लिया, "अगर आप को घर बैठे कमाई का अवसर मिल जाए तो क्या आप ऐसा कोई कार्य करना स्वीकार करेंगी?" उन महिलाओं को माने ऐसे ही अवसर का इंतज़ार था। वह सब तत्पर बोल पड़ीं, "जी बिलकुल, अगर हमें ऐसा कोई काम सिखा दिया जाए तो हम ज़रूर करेंगी।"

बिना देर किये, प्रोजेक्ट अफ़सर परसराम बाल्मिकी ने गांव में एक दिन का अगरबत्ती बनाने का प्रशिक्षण प्रोग्राम आयोजित किया। तत्पश्यात, पर्यावरण एवं ग्राम विकास समिति तुरुर के बैंक अकाउंट में पांच हज़ार रुपये डाल दिए गए।

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काम शुरू होने के पहले ही दिन, समूह की परिश्रमी महिलाओं ने 70 किलो अगरबत्तियां बना डालीं। जब आस पास की छोटी-बड़ी दुकानों में ये अगरबत्तियां बेचीं गयीं, तो न केवल इन औरतों की आय में वृद्धी हुई, बल्कि उनको और लगन से काम करने की प्रेरणा मिली। अब ये महिलाएं अपने दिन के औसतन 4 से 5 घंटे अगरबत्तियां बनाने में लगाती हैं और फिर उन्ही अगरबत्तियों को थोक विक्रेताओं को सप्लाई करती हैं।

ऐसी सफ़लता की ख़बर आख़िर कब तक न फैलती? जल्द ही न केवल आस-पास, बल्कि दूर-दराज की संस्थाएं भी इन महिलाओं का काम देखने और इनसे कुछ सीखने की चाह में आने लगीं। ऐसे ही एक संस्था, रिलाएंस फाउंडेशन आजीविका मिशन, अब वन ग्राम तुरूर माँ अम्बा अगरबत्ती समूह से प्रशिक्षण लेती हैं।

इसी बीच महिलाओं के समूह को एक आजीविका मिशन से जोड़ा गया और महिलाओं के कार्य और लगन को देखते हुए आजीविका मिशन द्वारा फ़रवरी 2017 में अगरबत्तियां बनाने हेतु इलेक्ट्रॉनिक मशीन और रॉ मटेरियल हेतु  कुल 1,50,000 का लोन दिया गया। अब वन ग्राम तुरुर से बनी अगरबत्ती प्रदेश के अन्य ज़िलों में भी बेंची जाएंगी।

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वन ग्राम तुरूर माँ अम्बा अगरबत्ती समूह की 10 परिश्रमी और सफ़ल महिलाओं के नाम:

सनियारो बाई, मानकी बाई मरावी, सुहागा बाई मरावी, कृषणा बाई मरावी, धनवती बाई  मरावी,  रज्जो बाई मरावी, अनसुइया बाई मरावी, सिमिया बाई मरावी,   नैनवाती  मरावी, देवकी बाई

एक सफलता
वन ग्राम तुरूर माँ अम्बा अगरबत्ती समूह
टीम सतपुड़ा माइकल लैंडस्केप
डब्लू डब्लू एफ इंडिया

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